सुवचनानि (Suvachanani)-

सुवचनानि   (Suvachanani)-

ज्ञानम् / शिक्षा / विद्या-

हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः
हितकारी बातें मन को भी अच्छी लगे ऐसा दुर्लभ ही होता है।

सूक्तिः
१. ज्ञानं तृतीयं पुरुषस्य नेत्रम् ।
अर्थ - 
ज्ञान मनुष्य का तीसरा नेत्र है ।


श्लोकः

२. अनन्तशास्त्रं बहु वेदितव्यमल्पश्च कालो बहवश्च विघ्नाः । 
यत्सारभूतं तदुपासितव्यं हंसो यथा क्षीरमिवाम्बुमिश्रम् ।। (नराभरणम्-११९)

अर्थ - 
शास्त्रों का अन्त नहीं है, जानने को बहुत कुछ है, समय कम है, विघ्न बहुत हैं । जो सार है उसी का ग्रहण करना चाहिये जैसे कि हंस जल मिश्रित दूध में से केवल दूध ग्रहण कर लेता है ।

श्लोकः

३. सा विद्या या मदं हन्ति सा श्रीर्यार्थिषु वर्षति । 
धर्मानुसारिणी या च सा बुद्धिरभिधीयते ।। (दर्पदलनम्, ३/३)

अर्थ - 
विद्या वह है जो मद को दूर करे । लक्ष्मी वह है जो याचकों पर बरसे । बुद्धि वह है जो धर्मानुसारिणी हो ।

श्लोकः

४. प्रज्ञा प्रतिष्ठा भूतानां प्रज्ञा लाभः परो मतः । 
प्रज्ञा निःश्रेयसी लोके प्रज्ञा स्वर्गो मतः सताम् ।। (महाभा.शान्ति-.१८०/२)

अर्थ - 
बुद्धि ही प्राणियों का आधार है, बुद्धि की प्राप्ति ही सबसे उत्कृष्ट लाभ है, बुद्धि ही संसार में कल्याणकारिणी है और सज्जनों के विचार से बुद्धि ही स्वर्ग (सुख का साधन) है ।

श्लोकः

५. विद्वान् प्रशस्यते लोके विद्वान् गच्छति गौरवम् । 
विद्यया लभ्यते सर्वं विद्या सर्वत्र पूज्यते ।। (चा.नीतिः - ०८/२०)

अर्थ - 
संसार में विद्वानों की प्रशंसा होती है, विद्वान् को सर्वत्र आदर मिलता है, विद्या से सब कुछ प्राप्त होता है, विद्या की सर्वत्र पूजा होती है । विद्या सभी धनों में प्रधान और कुरूपों का भी भूषण है । अतः विद्या से श्रेष्ठ इस संसार में कुछ नहीं है ।

वचनम्

६. विद्वत्ता अच्छे दिनों में आभूषण, विपत्ति में सहायक और बुढ़ापे में संचित धन है ।(हितो.)

वचनम्

७. जिस प्रकार रात्रि का अन्धकार केवल सूर्य दूर कर सकता है, उसी प्रकार मनुष्य की विपत्ति को केवल ज्ञान दूर कर सकता है । (नारदभक्तिः)

वचनम्

८. जैसे जल द्वारा अग्नि को शांत किया जाता है वैसे ही ज्ञान के द्वारा मन को शांत रखना चाहिये । (वेदव्यासः)

सूक्तिः

९. विद्यायाश्च फलं ज्ञानं विनयश्च । (शुक्रनीतिः)

अर्थ - 
विद्या का फल ज्ञान और विनय है ।

सूक्तिः

१०. आत्मज्ञानं परं ज्ञानम् । (महाभारतम्)

अर्थ - 
आत्मज्ञान ही श्रेष्ठ ज्ञान है ।

सूक्तिः

११. ज्ञानेन मुक्तिर्न तु मण्डनेन ।

अर्थ - 
ज्ञान से मुक्ति मिलती है, आभूषणों से नहीं ।

श्लोकः

१२. अपूर्वः कोऽपि कोशोऽयं विद्यते तव भारति ! । 
व्ययतो वृद्धिमायाति क्षयमायाति सञ्चयात् ।।

अर्थ - 
हे भारति ! तुम्हारा कोष अपूर्व है, क्योंकि यह कोष व्यय करने से बढ़ता है और संचय करने से घटता है ।

श्लोकः

१३. विद्या ददाति विनयं विनयाद्याति पात्रताम् । 
पात्रत्वाद्धनमाप्नोति धनाद्धर्मः ततः सुखम् ।। (हितोपदेशः)

अर्थ - 
विद्या विनम्रता को प्रदान करती है, विनम्रता से योग्यता आती है, योग्यता से धन की प्राप्ति होती है, धन से धर्म और धर्म से सुख की प्राप्ति होती है ।

सूक्तिः

१४. न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते । (गीता - ३/३८)

अर्थ - 
ज्ञान के समान अन्य कोई भी वस्तु इस संसार में पवित्र नहीं है ।

श्लोकः

१५. विद्यया द्योतते राज्यं विद्यया जीयते रिपुः । 
विद्यया ज्ञायते कृत्यं विद्यया लभ्यते यशः ।।

अर्थ - 
विद्या के द्वारा राज्य की ख्याति होती है, विद्या से ही शत्रुओं पर विजय संभव है, विद्या से ही मनुष्य के कार्यों व व्यवहार का बोध होता है । विद्या से ही यश की प्राप्ति होती है ।

श्लोकः

१६. स्वगृहे पूज्यते मूर्खः स्वग्रामे पूज्यते प्रभुः । 
स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते ।।

अर्थ - 
मूर्ख अपने घर में सम्मान प्राप्त करता है । गाँव में मुखिया को ही प्रमुखता दी जाती है । राजा अपने राज्य में ही सम्मान प्राप्त करता है । विद्वान् मनुष्य घर, ग्राम, स्वदेश व विदेश में भी सम्मान को प्राप्त करता है ।

श्लोकः

१७. न हि ज्ञानसमं लोके पवित्रं चान्यसाधनम् । 
विज्ञानं सर्वलोकानामुत्कर्षाय स्मृतं खलु ।।

अर्थ - 
इस संसार में ज्ञान के अलावा दूसरा कोई पवित्र वस्तु नहीं है । विज्ञान संसार के सभी कार्यों के विकास व उन्नति का आधार माना जाता है ।

श्लोकः

१८. सर्वद्रव्येषु विद्यैव द्रव्यमाहुरनुत्तमम् ।
अहार्यत्वादनर्घत्वादक्षयत्वाच्च सर्वदा ।। (हितोपदेशः)

अर्थ - 
सब द्रव्यों में विद्यारूपी द्रव्य सर्वोत्तम है, क्योंकि वह न किसी से हरा जा सकता, न उसका मूल्य हो सकता, और न ही उसका कभी नाश होता है ।

श्लोकः

१९. विदेशेषु धनं विद्या व्यसनेषु धनं मतिः । 
परलोके धनं धर्मः शीलं सर्वत्र वै धनम् ।।

अर्थ - 
विदेश में विद्या धन है, संकट में बुद्धि धन है, परलोक में धर्म धन है और शील सर्वत्र ही धन है ।

श्लोकः

२०. खद्योतो द्योतते तावद् यावन्नोदयते शशी । 
उदिते तु सहस्रांशौ न खद्योतो न चन्द्रमाः ।।

अर्थ - 
जब चन्द्रमा नहीं उगता, तब तारे भी चमकते हैं । परन्तु जब सूरज उगता है तब तारे तो दिखते नहीं चन्द्रमा भी नहीं दिखता है, दोनों ही सूरज के सामने फीके पड़ जाते हैं । भावार्थ- योग्य व्यक्ति की उपस्थिति में अयोग्य व्यक्ति स्वतः ही लुप्त हो जाते हैं ।

श्लोकः

२१. असूयैकपदं मृत्युः अतिवादः श्रियो वधः । 
अशुश्रूषा त्वरा श्लाघा विद्यायाः शत्रवस्त्रयः ।। (वि.नी. ८/४)

अर्थ - 
विद्यार्थी के लिए ईर्ष्या करना मृत्यु के समान है । अधिक या अपशब्द बोलना सम्पत्ति का नाशक है, तथा सेवाकार्यों में विमुख होना, पढ़ाई में जल्दबाजी करना, और स्वयं की प्रशंसा करना ये तीन विद्या के शत्रु हैं ।

श्लोकः

२२. प्रथमे नार्जिता विद्या द्वितीये नार्जितं धनम् । 
तृतीये नार्जितं पुण्यं चतुर्थे किं करिष्यति ।। (सु.र.भा.)

अर्थ - 
जो मनुष्य प्रथम अवस्था में (१ से २५ वर्षों में) विद्या अर्जन नहीं करता, द्वितीय अवस्था में (२६ से ५० वर्षों में) धनार्जन नहीं करता, तृतीय अवस्था में (५१ से ७५ वर्षों में) पुण्य (धर्म) नहीं करता तो वह चतुर्थ अवस्था में (७६ से १०० वर्षों में) में क्या करेगा ? अर्थात् जीवन के अन्तिम भाग में वह वृद्धावस्था के कारण कुछ भी करने में समर्थ नहीं होगा ।

श्लोकः

२३. अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः । 
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यति ।। (गीता - ३/३६)

अर्थ - 
यदि तु संसार में पाप करने वाले सभी पापियों में भी अधिकतम पाप करने वाला है । तब भी तु हे मनुष्य ! ज्ञानरूपी नौका से पाप के इस सागर को पार कर सकता है । अर्थात् ज्ञान से सर्वसिद्धि प्राप्त हो सकती है ।

सूक्तिः

२४. अविवेकः परमापदां पदम् ।

अर्थ - 
अज्ञान ही सभी समस्याओं की जड़ है।)

श्लोकः

२५. अन्नदानात् परं दानं विद्यादानमतःपरम् । 
अन्नेन क्षणिका तृप्तिर्यावज्जीवं च विद्यया ।।

अर्थ - 
अन्नदान श्रेष्ठ दान है, विद्या दान इससे भी श्रेष्ठ दान है । अन्न के द्वारा तो क्षणमात्र के लिए तृप्ति होती है किन्तु विद्या के द्वारा तो आजीवन मनुष्य सुखी रहता है ।

श्लोकः

२६. सर्वेषामेव दानानां ब्रह्मदानं विशिष्यते । 
वार्यन्नगोमहीवासस्तिलकाञ्चनसर्पिषाम् ।। (मनु.-४/२३३)

अर्थ - 
जल, अन्न, गाय, भूमि वस्त्र, तिल सोना और घी इन सभी के दान की अपेक्षा ज्ञान का दान श्रेष्ठ माना जाता है । ज्ञान का देना सब दानों से श्रेष्ठ है ।

श्लोकः

२७. न चोरहार्यं न च राजहार्यं न भ्रातृभाज्यं न च भारकारि ।
व्यये कृते वर्धत एव नित्यं विद्याधनं सर्वधनप्रधानम् ।।

अर्थ - 
विद्यारूपी धन को न चोर चुरा सकता है, न राजा हर सकता है, न यह भाई बन्धुओं में बाँटी जा सकती है, न ही यह मनुष्य के ऊपर बोझ़ बनती है । विद्या को हम जितना भी दूसरों को प्रदान करें, यह उतनी ही विस्तार से बढ़ती है अर्थात् वृद्धि को प्राप्त होती है । अतः विद्या को सर्वश्रेष्ठ धन माना गया है ।

श्लोकः

२८. मातेव रक्षति पितेव हिते नियुङ्क्ते ।
कान्तेव चाभिरमयत्यपनीय खेदम् ।। 
लक्ष्मीं तनोति वितनोति च दिक्षु कीर्तिं । 
किं किं न साधयति कल्पलतेव विद्या ।। (चाणक्यराजनीतिशास्त्रम्-२/३५)

अर्थ - 
माता के समान रक्षा करने वाली, पिता के समान हित करने वाली, पत्नी के समान कष्टों को दूर करने वाली, लक्ष्मी के समान सभी पुरुषार्थों को प्रदान करने वाली, सब दिशाओं में यश मान-सम्मान को बढ़ाने वाली यह विद्या उस कल्पलता के समान है, जिसके होने पर मनुष्य को इस संसार में कोई अपूर्ण इच्छा शेष नहीं रहती है ।

श्लोकः

२९. विद्या नाम नरस्य रूपमधिकं प्रच्छन्नगुप्तं धनम् । 
विद्या भोगकरी यशःसुखकरी विद्या गुरूणां गुरुः । 
विद्या बन्धुजनो विदेशगमने विद्या परं दैवतम् । 
विद्या राजसु पूज्यते नहि धनं विद्याविहीनः पशुः ।। (नीतिश.)

अर्थ - 
विद्या मनुष्य का रूप और गुप्त धन है, विद्या भोग और सुख को देने वाली और गुरुओं का भी गुरु है, विद्या परदेश में बन्धु के समान रक्षा करती है और विद्या श्रेष्ठ देवता है, विद्या राजाओं के द्वारा पूज्य होती है, और विद्या के बिना मनुष्य पशु के समान है ।

श्लोकः

३०. तमो धुनीते कुरुते प्रकाशं 
शमं विधत्ते विनिहन्ति कोपम् । 
तनोति धर्मं विधुनोति पापं 
ज्ञानं न किं किं कुरुते नराणाम् ।।

अर्थ - 
ज्ञान के बल से अज्ञान रूपी अन्धकार का नाश होता है, और प्रकाश छा जाता है । शान्ति का साम्राज्य होने से क्रोध नष्ट हो जाता है, और धर्म की वृद्धि के साथ साथ पापों का भी नाश होता है । अतः ज्ञान मनुष्य का सब प्रकार से कल्याण करता है ।

सूक्तिः

३१. अविद्याजीवनं शून्यम् ।

अर्थ - 
(अविद्यापूर्ण जीवन सूना है ) ।

सूक्तिः

३२. क्षणशः कणशश्चैव विद्याम् अर्थं च साधयेत् ।

अर्थ - 
एक-एक क्षण का उपयोग कर विद्या का और एक-एक कण का उपयोग कर धन का संचय करना चाहिए ।

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